दोहे संत कबीर दास के – Dohe Sant Kabir Ke
जिन खोजा तिन पाइया,
गहरे पानी पैठ
मैं बपुरा बूडन डरा,
रहा किनारे बैठ।
कहैं कबीर देय तू,
जब लग तेरी देह
देह खेह होय जायगी,
कौन कहेगा देह
या दुनिया दो रोज की,
मत कर यासो हेत
गुरु चरनन चित लाइये,
जो पुराण सुख हेत
ऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोय
औरन को शीतल करै, आपौ शीतल होय
धर्म किये धन ना घटे,
नदी न घट्ट नीर
अपनी आखों देखिले,
यों कथि कहहिं कबीर
कहते को कही जान दे,
गुरु की सीख तू लेय
साकट जन औश्वान को,
फेरि जवाब न देय
कबीर तहाँ न जाइये,
जहाँ जो कुल को हेत
साधुपनो जाने नहीं,
नाम बाप को लेत
जैसा भोजन खाइये, तैसा ही मन होय
जैसा पानी पीजिये,
तैसी बानी सोय।
कबीर तहाँ न जाइये,
जहाँ सिध्द को गाँव
स्वामी कहै न बैठना,
फिर-फिर पूछै नाँव
इष्ट मिले अरु मन मिले,
मिले सकल रस रीति
कहैं कबीर तहँ जाइये,
यह सन्तन की प्रीति
कबीरा ते नर अंध हैं,
गुरू को कहते और
हरि रुठे गुरु ठौर है,
गुरू रुठे नहीं ठौर
गारी ही से उपजै, कलह कष्ट औ मीच
हारि चले सो सन्त है,
लागि मरै सो नीच
बहते को मत बहन दो,
कर गहि एचहु ठौर
कह्यो सुन्यो मानै नहीं,
शब्द कहो दुइ और
बन्दे तू कर बन्दगी,
तो पावै दीदार
औसर मानुष जन्म का,
बहुरि न बारम्बार
बार-बार तोसों कहा,
सुन रे मनुवा नीच
बनजारे का बैल ज्यों,
पैडा माही मीच।
मन राजा नायक भया,
टाँडा लादा जाय
पूँजी गयी बिलाय
बनिजारे के बैल ज्यों,
भरमि फिर्यो चहुँदेश
खाँड़ लादी भुस खात है,
बिन सतगुरु उपदेश
जीवत कोय समुझै नहीं,
मुवा न कह संदेश
तन – मन से परिचय नहीं, ताको क्या उपदेश
जिही जिवरी से जाग बँधा,
तु जनी बँधे कबीर
जासी आटा लौन ज्यों,
सों समान शरीर
बुरा जो देखन मैं देखन चला,
बुरा न मिलिया कोय
जो दिल खोजा आपना,
मुझसे बुरा न कोय
पोथी पढ़ी पढ़ी जग मुआ,
पंडित भया न कोय
ढाई आखर प्रेम का,
पढ़े सो पंडित होय
साधू ऐसा चाहिये, जैसा सूप सुभाय,
सार – सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय
तिनका कबहूँ ना निन्दिये,
जो पाँवन तर होय
कबहूँ उड़ी आँखिन पड़े,
तो पीर घनेरी होय
धीरे – धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय
माली सींचे सौ घड़ा,
ऋतु आए फल होय
माला फेरत जुग भया,
फिरा न मन का फेर,
कर का मनका डार दे,
मन का मनका फेर
जाति न पूछो साधू की,
पुच लीजिए ज्ञान
मोल करो तरवार का,
पड़ा रहन दो म्यान
दोस पराए देखि करि,
चला हसन्त हसन्त
अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत
गुरु गोविंद दोनो खड़े,
काके लागूं पांय
बलिहारी गुरु आपनो,
गोविंद दियो मिलाय
कबीरा सोई पीर है,
जो जाने पर पीर
जो पर पीर न जानही,
सो का पीर में पीर
माटी कहे कुमार से,
तू क्या रोंदे मोहे
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रोंदुंगी तोहे
दुःख में सुमिरन सब करे सुख
में करै न कोय
जो सुख में सुमिरन करे दुःख
काहे को होय
तन को जोगी सब करे,
मन को विरला कोय
सहजे सब विधि पाइए,
जो मन जोगी होए
नहाये धोये क्या हुआ,
जो मन मैल न जाए
मीन सदा जल में रहे,
धोये बास न जाए
कबीरा जब हम पैदा हुए,
जग हँसे हम रोये
ऐसी करनी कर चलो, हम हँसे जग रोये
साईं इतना दीजिए, जा में कुटम समाय
मै भी भूखा न रहूं,
साधू न भूख जाय
माया मरी न मन मरा,
मर-मर गए शरीर
आशा तृष्णा न मरी,
कह गए दास कबीर
गुरु सो ज्ञान जु लीजिये,
सीस दीजये दान।
बहुतक भोंदू बहि गये,
सखि जीव अभिमान।।
गुरु की आज्ञा आवै,
गुरु की आज्ञा जाय
कहैं कबीर सो संत हैं,
आवागमन नशाय
गुरु पारस को अन्तरो,
जानत हैं सब सन्त
वह लोहा कंचन करे,
ये करि लये महन्त
दोहा– 40
कुमति कीच चेला भरा,
गुरु ज्ञान जल होय
जनम – जनम का मोरचा, पल में डारे धोया
दोहा– 41
गुरु कुम्हार शिष कुंभ है,
गढ़ि – गढ़ि काढ़ै खोट
अन्तर हाथ सहार दै,
बाहर बाहै चोट
दोहा– 42
गुरु समान दाता नहीं,
याचक शीष समान
तीन लोक की सम्पदा,
सो गुरु दीन्ही दान
दोहा– 43
जो गुरु बसै बनारसी,
शीष समुन्दर तीर
एक पलक बिखरे नहीं,
जो गुण होय शारीर
दोहा– 44
गुरुब्रह्मा गुरुविर्ष्णुः,
गुरुर्देवो महेश्वरः
गुरुः साक्षात् परब्रह्म,
तस्मै श्री गुरवे नमः
दोहा– 45
गुरू गोविन्द दोऊ खङे का के
लागु पाँव
बलिहारी गुरू आपने गोविन्द
दियो बताय
दोहा– 46
गुरु को सिर राखिये,
चलिये आज्ञा माहिं
कहैं कबीर ता दास को,
तीन लोकों भय नाहिं
दोहा– 47
गुरू बिन ज्ञान न उपजै,
गुरू बिन मिलै न मोष
गुरू बिन लखै न सत्य को गुरू
बिन मिटै न दोष
दोहा– 48
गुरु मूरति गति चन्द्रमा,
सेवक नैन चकोर
आठ पहर निरखत रहे,
गुरु मूरति की ओर
दोहा– 49
गुरु मूरति आगे खड़ी,
दुतिया भेद कुछ नाहिं
उन्हीं कूं परनाम करि,
सकल तिमिर मिटि जाहिं
दोहा– 50
ज्ञान समागम प्रेम सुख,
दया भक्ति विश्वास
गुरु सेवा ते पाइए, सद् गुरु चरण निवास
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