Mirza Ghalib |
दोसत ग़मखवारी
में मेरी सअयी फ़रमायेंगे क्या
ज़ख़्म के भरते तलक
नाखुन न बढ़ जाएंगे क्या
बेन्याजी हद से गुज़री,
बन्दा-परवर कब तलक
हम कहेंगे हाले-दिल
और आप फरमायेंगे क्या ?
हज़रते-नासेह गर आएं
दीदा-औ-दिल फरशे-राह
कोई मुझको यह तो समझा
दो समझायेंगे क्या
आज वां तेग़ो-कफ़न बांधे
हुए जाता हूं मैं
उजर मेरे कतल करने
में वो अब लायेंगे क्या
गर कीया नासेह ने
हमको कैद अच्छा ! यूं सही
ये जुनेने-इशक के
अन्दाज़ छूट जायेंगे क्या
ख़ाना-ज़ादे-ज़ुल्फ़ हैं,
जंज़ीर से भागेंगे कयों
हैं गिरिफ़तारे-वफ़ा,
जिन्दां से घबरायेंगे क्या
है अब इस माअमूरा
में कहते (कहरे)-ग़मे-उलफ़त 'असद'
हमने यह माना कि दिल्ली
में रहें खायेंगे क्या
(नोट=कई जगह 'भरते तलक' की जगह
'भरने तलक'
भी लिखा मिलता है)
धमकी में
मर गया, जो न बाबे-नबरद था
इशके-नबरद पेशा,
तलबगारे-मरद था
था ज़िन्दगी में मरग
का खटका लगा हुआ
उड़ने से पेशतर भी
मेरा रंग ज़रद था
तालीफ़े-नुसखाहा-ए
वफ़ा कर रहा था मैं
मजमूअ-ए-ख़याल अभी
फ़रद-फ़रद था
दिल ता ज़िग़र,
कि साहले-दरीया-ए-खूं है अब
इस रहगुज़र में जलवा-ए-गुल
आगे गरद था
जाती है कोई कशमकश
अन्दोहे-इशक की
दिल भी अगर गया,
तो वही दिल का दर्द था
अहबाब चारा-साजीए-वहशत
न कर सके
ज़िन्दां में भी ख़याल,
बयाबां-नबरद था
यह लाश बेकफ़न,
'असदे'-ख़सता-जां की है
हक मगफ़िरत करे,
अजब आज़ाद मरद था
दायम पड़ा
हुआ तेरे दर पर नहीं हूं मैं
ख़ाक ऐसी ज़िन्दगी पे
कि पत्थर नहीं हूं मैं
कयों गरदिश-ए-मुदाम
से घबरा न जाये दिल
इनसान हूं पयाला-ओ-साग़र
नहीं हूं मैं
या रब ! ज़माना मुझको
मिटाता है किस लिये
लौह-ए-जहां पे हरफ़-ए-मुकररर
नहीं हूं मैं
हद चाहिये सज़ा में
उकूबत के वासते
आख़िर गुनहगार हूं,
काफ़िर नहीं हूं मैं
किस वासते अज़ीज़ नहीं
जानते मुझे ?
लालो-ज़मुररुदो-ज़र-ओ-गौहर
नहीं हूं मैं
रखते हो तुम कदम मेरी
आंखों में कयों दरेग़
रुतबे में मेहर-ओ-माह
से कमतर नहीं हूं मैं
करते हो मुझको मनअ-ए-कदम-बोस
किस लिये
क्या आसमान के भी
बराबर नहीं हूं मैं
'ग़ालिब' वज़ीफ़ाख़वार हो, दो शाह को दुआ
वो दिन गये कि कहते
थे, "नौकर नहीं हूं मैं"
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