Friday, 17 July 2020

मिर्ज़ा ग़ालिब | Mirza Ghalib | مرزا غالب

मिर्ज़ा ग़ालिब Hindi
Mirza Ghalib


दोसत ग़मखवारी में मेरी सअयी फ़रमायेंगे क्या
ज़ख़्म के भरते तलक नाखुन न बढ़ जाएंगे क्या

बेन्याजी हद से गुज़री, बन्दा-परवर कब तलक
हम कहेंगे हाले-दिल और आप फरमायेंगे क्या ?

हज़रते-नासेह गर आएं दीदा-औ-दिल फरशे-राह
कोई मुझको यह तो समझा दो समझायेंगे क्या

आज वां तेग़ो-कफ़न बांधे हुए जाता हूं मैं
उजर मेरे कतल करने में वो अब लायेंगे क्या

गर कीया नासेह ने हमको कैद अच्छा ! यूं सही
ये जुनेने-इशक के अन्दाज़ छूट जायेंगे क्या

ख़ाना-ज़ादे-ज़ुल्फ़ हैं, जंज़ीर से भागेंगे कयों
हैं गिरिफ़तारे-वफ़ा, जिन्दां से घबरायेंगे क्या

है अब इस माअमूरा में कहते (कहरे)-ग़मे-उलफ़त 'असद'
हमने यह माना कि दिल्ली में रहें खायेंगे क्या

(नोट=कई जगह 'भरते तलक' की जगह
'भरने तलक' भी लिखा मिलता है)


धमकी में मर गया, जो न बाबे-नबरद था
इशके-नबरद पेशा, तलबगारे-मरद था

था ज़िन्दगी में मरग का खटका लगा हुआ
उड़ने से पेशतर भी मेरा रंग ज़रद था

तालीफ़े-नुसखाहा-ए वफ़ा कर रहा था मैं
मजमूअ-ए-ख़याल अभी फ़रद-फ़रद था

दिल ता ज़िग़र, कि साहले-दरीया-ए-खूं है अब
इस रहगुज़र में जलवा-ए-गुल आगे गरद था

जाती है कोई कशमकश अन्दोहे-इशक की
दिल भी अगर गया, तो वही दिल का दर्द था

अहबाब चारा-साजीए-वहशत न कर सके
ज़िन्दां में भी ख़याल, बयाबां-नबरद था

यह लाश बेकफ़न, 'असदे'-ख़सता-जां की है
हक मगफ़िरत करे, अजब आज़ाद मरद था


दायम पड़ा हुआ तेरे दर पर नहीं हूं मैं
ख़ाक ऐसी ज़िन्दगी पे कि पत्थर नहीं हूं मैं

कयों गरदिश-ए-मुदाम से घबरा न जाये दिल
इनसान हूं पयाला-ओ-साग़र नहीं हूं मैं

या रब ! ज़माना मुझको मिटाता है किस लिये
लौह-ए-जहां पे हरफ़-ए-मुकररर नहीं हूं मैं

हद चाहिये सज़ा में उकूबत के वासते
आख़िर गुनहगार हूं, काफ़िर नहीं हूं मैं

किस वासते अज़ीज़ नहीं जानते मुझे ?
लालो-ज़मुररुदो-ज़र-ओ-गौहर नहीं हूं मैं

रखते हो तुम कदम मेरी आंखों में कयों दरेग़
रुतबे में मेहर-ओ-माह से कमतर नहीं हूं मैं

करते हो मुझको मनअ-ए-कदम-बोस किस लिये
क्या आसमान के भी बराबर नहीं हूं मैं

'ग़ालिब' वज़ीफ़ाख़वार हो, दो शाह को दुआ
वो दिन गये कि कहते थे, "नौकर नहीं हूं मैं"




No comments:

Post a Comment