Sunday 12 July 2020

मिर्ज़ा ग़ालिब | Mirza Ghalib


Mirza Ghalib मिर्ज़ा ग़ालिब
Mirza Ghalib
दर्द मिन्नत कशे दवा न हुआ
मैं न अच्छा हुआबुरा न हुआ

जमा करते हो कयों रकीबों को
इक तमाशा हुआ गिला न हुआ

हम कहां किस्मत आज़माने जाएं
तू ही जब ख़ंजर-आज़मा न हुआ

कितने शरीं हैं तेरे लब कि रकीब
गालियां खा के बे मज़ा न हुआ

है ख़बर गरम उनके आने की
आज ही घर में बोरीया न हुआ

क्या वो नमरूद की ख़ुदायी थी
बन्दगी में मेरा भला न हुआ

जान दीदी हुयी उसी की थी
हक तो यह है कि हक अदा न हुआ

ज़ख़्म गर दब गयालहू न थमा
काम गर रुक गया रवां न हुआ

रहज़नी है कि दिल-सितानी है
ले के दिलदिलसितां रवाना हुआ

कुछ तो पढ़ीये कि लोग कहते हैं
आज 'ग़ालिबग़ज़लसरा न हुआ


आह को चाहिये इक उम्र असर होने तक
कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक

दाम हर मौज में है हलका-ए-सदकामे-नहंग
देखें क्या गुज़रे है कतरे पे गुहर होने तक

आशिकी सबर तलब और तमन्ना बेताब
दिल का क्या रंग करूं ख़ूने-जिगर होने तक

हमने माना कि तगाफुल न करोगे लेकिन
ख़ाक हो जाएंगे हम तुमको ख़बर होने तक

परतवे-खुर से है शबनम को फ़ना की तालीम
मैं भी हूं एक इनायत की नज़र होने तक

यक-नज़र बेश नहीं फुरसते-हसती गाफ़िल
गरमी-ए-बज़म है इक रकसे-शरर होने तक

ग़मे-हसती का 'असद' किस से हो जुज़ मरग इलाज
शमा हर रंग में जलती है सहर होने तक

बस कि दुशवार है हर काम का आसां होना
 आदमी को भी मयस्सर नहीं इनसां होना

गिरीया चाहे है खराबी मिरे काशाने की
दरो-दीवार से टपके है बयाबां होना

वाए दीवानगी-ए-शौक कि हरदम मुझको
आप जाना उधर और आप ही हैरां होना

जलवा अज़-बसकि तकाज़ा-ए-निगह करता है
जौहरे-आईना भी चाहे है मिज़गां होना

इशरते-कतलगहे-अहले-तमन्ना मत पूछ
ईदे-नज़्ज़ारा है शमशीर का उरीयां होना

ले गए ख़ाक में हम, दाग़े-तमन्ना-ए-निशात
तू हो और आप बसद रंग गुलिसतां होना

इशरते-पारा-ए-दिल, ज़ख़्म-तमन्ना खाना
लज़्ज़ते-रेशे-जिगर, ग़रके-नमकदां होना

की मिरे कतल के बाद, उसने जफ़ा से तौबा
हाय, उस जूद पशेमां का पशेमां होना

हैफ़, उस चार गिरह कपड़े की किस्मत 'ग़ालिब'
जिसकी किस्मत में हो, आशिक का गिरेबां होना

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