Allama Muhammad Iqbal |
अफ़लाक से आता है नालों का जवाब आख़िर
करते हैं ख़िताब आख़िर
उठते हैं हिजाब आख़िर
अहवाल-ए-मुहब्बत में
कुछ फ़रक नहीं ऐसा
सोज़-ओ-तब-ओ-ताब अव्वल,
सोज़-ओ-तब-ओ-ताब आख़िर
मैं तुझको बताता हूं
तकदीर-ए-उमस कया है
शमशीर-ए-सनां अव्वल,
ताऊस-ओ-रबाब आख़िर
मैख़ाना-ए-यूरोप के
दसतूर निराले हैं
लाते हैं सुरूर अव्वल,
देते हैं शराब आख़िर
कया दबदबा-ए-नादिर,
कया शौकत-ए-तैमूरी
हो जाते हैं सब दफ़तर
गरके-मये-नाब आख़िर
था ज़बत बहुत मुशकिल
इस मील मुआनी का
कह डाले कलन्दर ने
इसरार-ए-किताब आख़िर
अगर कज
रौ हैं अंजुम, आसमां तेरा है या मेरा
मुझे फ़िकर-ए-जहां
कयों हो, जहां तेरा है या मेरा ?
अगर हंगामा हा'ए शौक से है ला-मकां खाली
खता किस की है या
रब ! ला-मकां तेरा है या मेरा ?
उसे सुबह-ए-अज़ल इनकार
की जुरअत हुयी कयों कर
मुझे मालूम कया,
वो राज़दां तेरा है या मेरा ?
मुहंमद भी तेरा,
जिबरील भी, कुरआन भी तेरा
मगर ये हरफ़-ए-शरीं
तरजुमान तेरा है या मेरा ?
इसी कोकब की ताबानी
से है तेरा जहां रौशन
ज़वाल-ए-आदम-ए-ख़ाकी
ज़यां तेरा है या मेरा ?
अजब वायज़
की दींदारी है या रब !
अदावत है इसे सारे
जहां से
कोयी अब तक न यह समझा,
कि इनसां
कहां जाता है,
आता है कहां से ?
वहीं से रात को ज़ुलमत
मिली है
चमक तारे ने पायी
है जहां से
हम अपनी दरदमन्दी
का फ़साना
सुना करते हैं अपने
राज़दां से
बड़ी बारीक हैं वायज़
की चालें
लरज़ जाता है आवाज़े-अज़ां
से
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