साढे़ सात बजे
सिपारा
पढ़ने
का
वक़्त
ख़त्म
हो
जाता
और
उसे
बड़े
ध्यान
से
अलमारी
में
रखकर
किताबों
पर
ध्यान
किया
जाता।
मैं
अभी
किताब
पढ़ने
के
स्थान
तक
नहीं
पहुंचा
था
मुझे
उर्दू
के
पहले
क़ाएदे
(प्रथम
पुस्तक
से
काम
चलाना
था।
मैंने
बस्ते
से
क़ायदा
निकाला
और
चित्र
देखने
लगा।
इस
बीच
दीदी
दूसरे
बच्चों
का
सबक़
सुन
रही
थीं
और
उन्हें
अगले
सबक़
की
तैयारी
करवा
रही
थीं।
जहां
ज़रूरत
महसूस
होती
हाथ
या
छड़ी
का
प्रयोग
करतीं।
पहले
राउंड
के
आख़िर
में
मेरी
बारी
आई।
अपने
हिसाब
से
मैं
सबक़
पढ़
चुका
था
और
ख़ुद
को
बाक़ी
बच्चों
से
चतुर्
मान
चुका
था।
क्योंकि
मैं
तस्वीर
को
देखकर
अनार,
बकरी,
पंखा
आदि
ख़ुद
ही
पढ़
चुका
था
और
ये
बात
मेरे
चतुर्
होने
के
लिए
काफ़ी
थी।
लेकिन
दीदी
को
ये
मंज़ूर
नहीं
था
उन्हों
ने
मेरी
चतुराई
को
चार
चांद
लगाने
का
निर्णय
कर
रखा
था।
उन्हों
ने
मेरे
चतुराई
कक्ष
में
अक्षर
उंडेलना
शुरू
किए।
अब
मुझे
पढ़ना
था
अलिफ़
अनार,
बे
बकरी
पै
पंखा
आदि।
इस पढ़ने पढ़ाने, सुनने सुनाने
की आवाज़ों में एक और आवाज़ मिल हो चुकी थी। ये आवाज़ इस पाठशाला का by-product
थी
जो आज तक मेरे मस्तकश में सुरकशित है और वो आवाज़ थी "ये ऑल इंडिया रेडीयो की
उर्दू सर्विस है, अब आप फ़रमाईशी
फ़िल्मी नग़मों का प्रोग्राम 'आपकी फ़र्मायश सुनेंगे "। गाना शुरू करने से पहले उस के
फ़र्मायश करने वालों के नाम श्रोताओं को याद करवाए जाते। इस के बाद गाना सुनवाया
जाता। दीदी और उन के घर वाले तो मनोरंजन के लिए ये प्रोग्राम सुनते थे। लेकिन
पाठकों की इस छोटी सी टोली को बलपुरोक ये सुनने पड़ते थे। आप इस तकलीफ़ को ज़रूर जान
सकते हैं जब कोई पाठक गाना सुनते सुनते सबक़ याद करता होगा। ये तकलीफ़ उस समय बढ़
जाती जब सबक़ सुनाते हुए गाना सुनना पड़ता या इस को यूओं समझ लें कि गाना सुनते हुए
सबक़ सुनाना पड़ता। कभी गाने के बोल दिमाग़ का चक्कर लगाते और कभी सबक़।
फ़रमाईशी
फ़िल्मी नग़मों का ये प्रोग्राम चौबीस घंटों में तीन बार चलता था। सुबह और दोपहर
के प्रोग्राम तो सारे पाठक समूह में सुन लिया करते थे। रात का प्रोग्राम कभी नहीं
सुन पाए क्योंकि रात को पढ़ाई नहीं करते थे प्रोग्राम तो पढ़ने के साथ जुड़ा था। पढ़ाई
के साथ संगीत या संगीत के साथ पढ़ाई। ये क्रम दिमाग़ में ऐसा पका हुआ कि जब भी में
कुछ पढ़ने बैठूँ हल्के फुलके संगीत की ज़रूरत महसूस करता हूँ। कई बार तो पढ़ना इस
कारन बंद करना पड़ा कि किसी प्रकार का कोई क्रमबद्ध शोर नहीं था। उदाहरण के लिए डांकी पंप की आवाज़, डीज़टकूलर की
आवाज़, पुराने पंखे
की आवाज़ आदि।
इस्लामी
गणतंत्र पाकिस्तान में पैदा हुआ। घर का वातावरण इस्लामी था। ऐसे वातावरण में आपके
हाथ में कोई धार्मिक पुस्तक हो। आप किसी भी बड़ी पुस्तक का चुनाओ कर सकते हैं और
पीछे लता दीदी, आशा जी, स्वर्ण लता जी, हेमलता जी, रफ़ी साहिब, किशवर साहिब , महेंद्र कपूर
साहिब , यसवा दास
साहिब के गाने चल रहे हूँ और आपके दिमाग़ में पढ़ाई के साथ संगीत का विचार कूट् कूट्
कर भरा हो तो आप
का
क्या बनेगा? धार्मिक सोच
होते हुए भी धार्मिक शिक्षा में आगे ना पहुंच पाने के पीछे उन लोगों की आवाज़ं बहुत
महत्तव है
ख़ैर अपनी
पाठशाला में वापिस आते हैं। सुबह की पढ़ाई का वक़्त कभी अनार को बे के साथ और बिक्री
को तय के साथ
जोरटे गुज़र गया। दस बज गए बच्चों को छुट्टी दे दी गई। में भी घर आ गया। आज से
पहले उस समय मुझे कभी नींद आती थी ना भूक लगती थी। लेकिन आज अचानक इन दोनों चीज़ों
ने मुझे घेर लीव। वास्तव में ये मस्तकश का ज़्यादा प्रयोग करने का परीनाम था। मेरी
इस नई दिशा से अम्मी के रोज़ के कामों में brunch बनाना शामिल
हो गया। जिसे बाद में उन्हों ने नाशते के साथ ही बनाना शुरू कर दिया। क्योंकि में
अपनी इस दशा से बाहर नहीं निकल पा रहा था और उन के रो के काम प्रभावित होते थे।
खाना खिलाने
के बीच और बाद में अम्मी मुझ
से
नए वातावरण और पढ़ाई के बारे में पूछने लगीं। खाने के बीच तो मैं उन्हें बताता रहा।
लेकिन खाना खाने के बाद नींद से मेरी आँखें बंद हुई जा रहीं थीं। दो बजे आँख खुली।
मैं उठा और घर से निकल कर अपने हमजोलियों को अखटा किया और हम खेलने लगे। खेल में
समय गुज़रने का पता ही नहीं होता उस दिन बिलकुल नहीं हुआ और तीन बज गए। मुझे गली
से पकड़ कर घर लाया गया और दुबारा पाठशाला भेज दिया गया। दीदी के कहने पर मैंने
सुबह वाले सबक़ की दोहराई शुरू। दीदी मुझे क्रम पर वापिस लातें और मैं बार-बार
अक्षर और चित्र को आपस में गड्डमड्ड करता रहा।
दीदी के घर
आने वाले बच्चों में मेरे सिवाए कोई बच्चा इस गली का नहीं था। मुझे उन से जान
पहचान में दो-चार दिन लग गए। उनमें लड़के लड़कीयां सभी शामिल थे। लड़के लड़कीयों का
अंतर आज के पढ़ने वालों के लिए लिखा है उस समय हम बच्चे ही थे। हम पर ये अंतर नहीं
खुला था जो आजकल के लड़के लड़कीयों पर हो चुका है। जिसका कारन नई नई खोजों तक आसानी
से उन की पहुंच है और कई बार ये पहुंच माता पिता को रुसवाई तक ले जाती है। ख़ैर में
अपने नए दोस्तों के साथ घुल मिल गया। शिक्षा और खेल पर वार्ता अपने शिखर पर थी कि
दीदी ने एक बच्चे को अपने पास बुलाया और इस वार्ता का विवरण जानने की कोशिश की। बच्चा पेट का
हल्का था तुरंत सब उगल दिया। दीदी ने डाँटा और सबको दुबारा पढ़ाई करने का कहा।
दिन गुज़रते
गए और में अपनी शिक्षा यात्रा में मस्त था। दीदी ने पढ़ाई के साथ लिखाई के अभ्यास
के लिए तख़्ती लिखवानी शुरू की। बाक़ी बच्चे भी तख़्ती पर ही लिखाई का अभ्यास किया
करते थे। अपनी शिक्षा के आरंम्भ में ही तख़्ती से शस्त्र विद्या सीख ली थी। जो बाद
में मेरे काम आई। अपने समय में मेरी पत्नी भी तख़्ती की लड़ाई में कौशल थी। इस का
ज्ञान मुझे उस के छोटे भाई की टांग पर लगे एक लंबे घाव को देखकर हुआ। तख़्ती लिखने
वाले छोटे मोटे घाव की परवाह नहीं करते थे। तख़्ती लिखने से ज़्यादा हम तख़्ती काली
किया करते थे और साथ ही हाथ और कपड़े भी काले हुआ करते थे।
तख़्ती की
तैयारी भी एक बड़ा काम था। अगर धूप अच्छी होती तो ये काम जल्दी पुरा हो जाता। बरसात
और सर्दी के मौसम में ये काम ज़रा देर से होता था। तख़्ती लिखने के लिए दूसरी चीज़ें
भी ज़रूरी हैं। तख़्ती, क़लम, दवात, स्याही । जिस
तरह आज कल शैंपू के
साशे मिलते हैं वैसे ही स्याही की पुड़िया मिला करती थी। ये स्याही दवात में डाल कर
थोड़ी मात्रा में पानी डालना होता था। ये थोड़ी मात्रा मुझे आज तक समझ नहीं आई। जब स्याही
ज़रा गाढ़ी होती इस में थोड़ा थोड़ा पानी डाल कर पतला किया जाता। यही वो वक़्त होता जब
दवात गिर जाती टाट, बस्ता, क़ायदा और फ़र्श
सब काला हो जाता और बच्चों को नील पड़ जाते।
आजकल औरतें
मुल्तानी मिट्टी मुँह पर लगाती हैं। इस वक़्त मुल्तानी मिट्टी तख़्ती का मुँह पोंछने
के काम आती थी। तख़्ती पोंछ और सुखा कर दीदी को दी जाती वो पेंसिल से इस पर अलिफ़
बे लिख देतीं। हम (हम
-में
और बाक़ी बच्चे( इस पर क़लम चलाते हुए उन की साफ़ लिखाई
को अपनी बुरी लिखाई से मिला कर हर दिन एक नया नमूना बना देते। कभी अलिफ़ अपनी सीमा
से बाहर निकल जाता, कभी जीम का
घेरा पै का पेट चीर देता। हमसे जो बन पड़ता हम कर गुज़रते। दीदी अच्छी उस्तानी थीं।
लेकिन अपनी लिखाई का ये हाल देखकर वो अक्सर नाराज़ हो जाती थीं। बाक़ी आप समझदार
हैं।
जारी है ।।।
میری پڑھائی کی شروعات –
2
ساڑھے سات بجے سپارہ
پڑھنے کا وقت ختم ہو جاتا اور اُسے بڑی احتیاط سے الماری میں رکھ کر کتابوں کی طرف
رجوع کیا جاتا۔ میں ابھی کتاب پڑھنے کے مقام تک نہیں پہنچا تھا پس مجھے اُردو کے
پہلے قاعدے سے کام چلانا تھا۔ میں نے بستے سے قاعدہ نکالا اور تصویریں دیکھنے لگا۔
اس دوران باجی دوسرے بچوں کا سبق سُن رہی تھیں اور اُنہیں اگلے سبق کی تیاری کروا
رہی تھیں۔ جہاں ضرورت محسوس ہوتی ہاتھ یا چھڑی کا استعمال کرتیں۔ پہلے راؤنڈ کے
آخر میں میری باری آئی۔ اپنے تئیں میں سبق پڑھ چُکا تھا اور خود کو باقی بچوں سے
ذہین تسلیم کر چُکا تھا۔ کیونکہ میں تصویر کو دیکھ کر انار، بکری، پنکھا، وغیرہ
وغیرہ خود ہی پڑھ چُکا تھا اور یہ بات میرے ذہین ہونے کے لیے کافی تھی۔ لیکن باجی
کو یہ منظور نہیں تھا اُنہوں نے میری ذہانت کو چار چاند لگانے کا فیصلہ کر رکھا
تھا۔ اُنہوں نے میرے ذہانت خانے میں حروف اُنڈیلنا شروع کیے۔ اب مجھے پڑھنا تھا
الف انار، بے بکری پے پنکھا وغیرہ وغیرہ۔
اس پڑھنے پڑھانے، سُننے
سُنانے کی آوازوں میں ایک اور آواز شامل ہو چُکی تھی۔ یہ آواز اِس درسگا کا by-product
تھی جو آج تک میرے دماغ میں محفوظ ہے اور وہ آواز تھی " یہ آل انِڈیا ریڈیو
کی اُردو سروس ہے، اب آپ فرمایشی فلمی نغموں کا پروگرام 'آپ کی فرمایش' سُنیں گے
"۔ گانا نشر کرنے سے پہلے اس کے فرمایش کنندگان کے اسمائے گرامی سامعین کو یاد کروائے جاتے۔
اس کے بعد گانا سُنوایا جاتا۔ باجی اور اِن کے گھر والے تو تفریحِ طبع کے لیے یہ
پروگرام سُنتے تھے۔ لیکن طلباء کی اِس چھوٹی سی جماعت کو جبراً یہ سُننے پڑتے تھے۔
آپ اُس کرب کو ضرور محسوس کر سکتے ہیں جب کوئی طالبعلم گانا سُنتے سُنتے سبق یاد
کرتا ہو گا۔ یہ کرب اُس وقت شدت اختیار کر جاتا جب سبق سُناتے ہوئے گانا سُننا
پڑتا یا اِس کو یُوں سمجھ لیں کہ گانا سُنتے ہوئے سبق سُنانا پڑتا۔ کبھی گانے کے
بول دماغ کا چکر لگاتے اور کبھی سبق۔
فرمایشی فلمی نغموں کا
یہ پروگرام چوبیس گھنٹوں میں تین بار نشر ہوتا تھا۔ صبح اور دوپہر کے پروگرام تو
سارے طالبعلم باجماعت سُن لیا کرتے تھے۔ رات کا پروگرام کبھی نہیں سُن پائے کیونکہ
رات کو پڑھائی نہیں کرتے تھے پروگرام تو پڑھنے کے ساتھ مشروط ہو چُکا تھا۔ پڑھائی
کے ساتھ موسیقی یا موسیقی کے ساتھ پڑھائی۔ یہ ترتیب لاشعور میں ایسی پختہ ہوئی کہ
جب بھی میں کچھ پڑھنے بیٹھوں ہلکی پُھلکی موسیقی کی طلب محسوس کرتا ہوں۔ کئی بار
تو مطالعہ ترک ہی اِس وجہ سے کرنا پڑا کہ کسی قسم کا کوئی باترتیب شور نہیں تھا۔
مثلاً ڈونکی پمپ کی آواز، ڈیزٹ کولر کی آواز، پرانے پنکھے کی آواز وغیرہ۔
اسلامی جمہوریہ پاکستان
میں پیدا ہوا۔ گھر کا ماحول بھی اسلامی، جسے بریلوی مکتبہ فکر سے آراستہ کیا گیا
تھا۔ ایسے ماحول میں آپ کے ہاتھ میں کوئی مذہبی کتاب ہو۔ آپ کسی بھی بڑی کتاب کا
انتخاب کر سکتے ہیں اور پس منظر میں لتا، آشا، سورن لتا، ہیم لتا، رفیع، کشور،
مہیندر کپور، یسوع داس یا دیگر نغمہ سرا ہوں اور آپ کے دماغ میں پڑھائی کے ساتھ
موسیقی کا نظریہ کُوٹ کُوٹ کر بھرا ہو تو آپ کا کیا بنے گا؟ مذہبی رجحان ہونے کے
باوجود مذہبی تعلیم میں اعلٰی مقام تک نہ پہنچ پانے کے پیچھے مذکورہ لوگوں کی
آوازں نے اہم کردار ادا کیا۔
خیر اپنی درسگاہ میں
واپس آتے ہیں۔ صبح کی پڑھائی کا وقت کبھی انار کو بے کے ساتھ اور بکری کو تے کے
ساتھ جوڑتے گزر گیا۔ دس بج گئے بچوں کو چُھٹی دے دی گئی۔ میں بھی گھر آ گیا۔ آج سے
پہلے اِس وقت نہ مجھ پے نیند کا غلبہ ہوتا تھا نہ بُھوک کا۔ لیکن آج غیر معمولی
طور پر اِن دونوں چیزوں نے مجھے آ لِیا۔ یقیناً یہ دماغ کے غیر معمولی استعمال کیا
نتیجہ تھا۔ میری اِس نئی کیفیت سے امی کے معمولات میں brunch
بنانا شامل ہو گیا۔ جسے بعد میں اُنہوں نے ناشتے کے ساتھ ہی بنانا شروع کر دیا۔
کیونکہ میں اپنی اس کیفیت سے باہر نہیں نکل پا رہا تھا اور اُن کے روزمرہ کے کام
متاثر ہوتے تھے۔
کھانا کھلانے کے دوران
اور بعد میں امی مجھ سے نئے ماحول اور پڑھائی کے بارے میں پوچھنے لگیں۔ کھانے کے
دوران تو میں اُنہیں بتاتا رہا۔ لیکن کھانا کھانے کے بعد نیند سے میری آنکھیں بند
ہوئی جا رہیں تھیں۔ دو بجے آنکھ کُھلی۔ میں اُٹھا اور گھر سے نکل کر اپنے ہمجولیوں
کو اکٹھا کیا اور ہم کھیلنے لگے۔ کھیل میں وقت کا احساس نہیں ہوتا اُس دِن بالکل
نہیں ہوا اور تین بج گئے۔ مجھے گلی سے پکڑ کر گھر لایا گیا اور دوبارہ درسگاہ بھیج
دیا گیا۔ باجی کے کہنے پر میں نے صبح والے سبق کی دوہرائی شروع۔ باجی مجھے رائج
ترییب پر واپس لاتیں اور میں بار بار الفاظ اور تصاویر کو آپس میں گُڈ مُڈ کرتا
رہا۔ اپنی اوقات کے مطابق دِن کے دونوں اوقات کی پڑھائی کرے کے بعد گھر واپس آ
گیا۔
باجی کے گھر آنے والے
بچوں میں میرے علاوہ کوئی بچہ اِس گلی کا نہیں تھا۔ سو مجھے اِن سے جان پہچان میں
دو چار دِن لگ گئے۔ ان میں لڑکے لڑکیاں سبھی شامل تھے۔ لڑکے لڑکیوں کی تفریق آج کے
پڑھنے والوں کے لیے لکھی ہے اُس وقت ہم بچے ہی تھے۔ ہم پر وہ فرق واضح نہیں ہوا
تھا جو آج کل کے لڑکے لڑکیوں پر ہو چُکا ہے۔ جس کا سبب نئی ایجادات تک آسانی سے
اِن کی رسائی ہے اور بہت دفعہ یہ رسائی والدین کو رُسوائی تک لے جاتی ہے۔ خیر میں
اپنے نئے دوستوں کے ساتھ گُھل مِل گیا۔ تعلیمی اور تفریحی امور پر گفتگو اپنے عروج
پر تھی کہ باجی نے ایک بچے کو اپنے پاس بُلایا اور اِس راز و نیاز کی تفصیل جاننے
کی کوشش کی۔ بچہ پیٹ کا ہلکا تھا فوراً سب اُگل دِیا۔ باجی نے سرزنش کی اور سب کو
دوبارہ پڑھائی پر توجہ کرنے کا کہا۔
دِن گزرتے گئے اور میں
منزلوں پے منزلیں مارتا علمی سفر پر رواں تھا۔ باجی نے پڑھائی کے ساتھ لکھائی کی
مشق کے لیے تختی لکھوانی شروع کی۔ باقی بچے بھی تختی پر ہی لکھائی کی مشق کیا کرتے
تھے۔ اپنی ابتدائی تعلیم کی شروعات میں ہی تختی کو بطور ہتھیار استعمال کرنا سیکھ
چکا تھا۔ جو بعد میں میرے کام آیا۔ اپنے وقت میں میری بیگم بھی تختی کی لڑائی میں
مہارت رکھتی تھیں۔ اس کا علم مجھے اُس کے چھوٹے بھائی کی ٹانگ پر لگے ایک لمبے زخم
کا نشان دیکھ کر ہوا۔ گروہِ تختی نویساں ایسی چھوٹی موٹی ضربات کو خاطر میں نہیں
لاتا تھا۔ تختی لکھنے سے زیادہ ہم تختی سیاہ کیا کرتے تھے اور ساتھ ہی ہاتھ اور
کپڑے بھی سیاہ ہوا کرتے تھے۔
تختی کی تیاری بھی ایک
اہم عمل تھا۔ اگر دھوپ اچھی ہوتی تو یہ عمل جلد مکمل ہو جاتا۔ برسات اور سردی کے
موسم میں یہ عمل ذرہ سُست ہوتا تھا۔ تختی لکھنے کے لیے ضروری لوازمات بھی بہت اہم
تھے۔ تختی، قلم، دوات، سیاہی (جسے اہلِ علم روشنائی لکھا، پڑھا اور بولا کرتے
تھے)۔ جس طرح آج کل شیمپو کے ساشے ملتے ہیں ویسے ہی سیاہی (روشنائی) کی پُڑیا ملا
کرتی تھی۔ یہ سیاہی دوات میں ڈال کر مناسب مقدار میں پانی ڈالنا ہوتا تھا۔ یہ مناسب
مقدار مجھے ایک عرصے تک سمجھ نہیں آئی۔ جب سیاہی ذرا گاڑھی (گُُبڑ) ہوتی اُس میں
تھوڑا تھوڑا پانی ڈال کر پتلا کیا جاتا۔ یہی وہ وقت ہوتا جب دوات گِر جاتی ٹاٹ،
بستہ، قاعدہ اور فرش سب سیاہ ہو جاتا اور بچوں کو نِیل پڑ جاتے۔
آج کل خواتین ملتانی
مٹی کو بڑے اہتمام سے چہرے، بازو وغیرہ پر لگاتی ہیں۔ اُس وقت ملتانی مٹی تختی کا
چہرہ پونچھنے کے کام آتی تھی۔ تختی پونچھ اور سُکھا کر باجی کو دی جاتی وہ پینسل
سے اُس پر الف بے لکھ دیتیں۔ ہم (ہم سے مراد میں اور باقی بچے) اُس پر قلم آزماتے
ہوئے اُن کی خُوش خطی کو اپنی بد خطی سے ملا کر ہر روز ایک نیا نمونہ پیش کرتے۔
کبھی الف اپنی حد سے باہر نکل جاتا، کبھی جیم کا دائرہ پے کا پیٹ چیر دیتا۔ الغرض
ہم سے جو بن پڑتا ہم کر گُزرتے۔ باجی یقیناً شفیق اُستاد تھیں۔ لیکن اپنی خوش خطی
کا یہ حال دیکھ کر وہ اکثر ناراض ہو جاتی تھیں۔ باقی آپ سمجھدار ہیں۔
جاری ہے ۔۔۔۔